Saturday, September 20, 2008

... हां मैं विवाह को तैयार हूं ...

इस घटना के बाद मेरे माता-पिता और चाचा जी भीतर से टूट से गए थे। इससे मैं भी परेशान रहने लगी। अब किसी काम में मन ही नही लगता। ऐसा लगता कि कहीं से कोई भी अच्‍छा-खराब लडका आकर कह दे कि, हां मैं विवाह को तैयार हूं। ताकि मेरे पिता तनाव से मुक्‍त हो पाएं क्‍येां उनके तनाव से पूरा परिवार ही तनावग्रस्‍त रहने लगा था। इतनी मिहनत से मैं खाना बनाती पर कोई ठीक से खाना नहीं खाता था और खाना अक्‍सर बर्बाद हो जाता था। उस समय ऐसा कोई नहीं था मेरी परेशानी को समझनेवाला जो मुझे राहत देता, सबके लिए मैं संकट का पर्याय बन चुकी थी। उस समय लगता था कि अगर शशी अपने पैरों पर खडा रहता और विवाह के लिए हां कर देता तो मैं खुद घर में उससे शादी का प्रस्‍ताव लाती भले उसे अस्‍वीकार कर दिया जाता।
घर के इन झंझटों से परेशान होकर एक दिन मैं उसके बुलाने पर उसके घर चली गयी। वहां शशी के घर पर उसकी मां और बहन मौजूद थी। उसकी मां इसलिए परेशान थी कि मैं उनकी जाति की नहीं थी , क्‍येांकि मैं उन्‍हें पसंद थी। इसीलिए उन्‍हेांने मुझे समझाया कि बेटी आप मेरे बेटे से ना मिलिए क्‍यों कि समाज को यह पसंद नहीं । उस वक्‍त मैं जाति पाति आदि के झंझटों को नहीं समझती थी। मैं समझती थी कि वह मुझे अच्‍छा लगा रहा है तो उससे बात करूं उसके साथ अपनी मुश्किलें बाटूं। पर यह संभव नहीं था और मैं बुरी तरह निराश हुई कि क्‍या इस दुनिया में मेरे लिए कोई जगह नहीं। कि जहां जाकर मैं खुश रह सकूं और मेरे मां बाप की परेशानियां दूर हों।
इसी बीच एक और लडके का पता चला जो पास ही रहता था। माता पिता उसकी खोजबीन में लग गए। एक आशा जगी फिर। शादी की बात चली भी। हर रविवार को पापा सुबह सुबह तैयार होते तो मुझे लगता कि शायद आज लडका देखने जाना है। मैं जल्‍दी जल्‍दी उनके लिए नाश्‍ता तैयार करती थी।
अखिर लडके वालों से लेनेदेन तय हुआ। और लडकी देखने की बात हुई। इससे मेरे मन में आशा जगी और परेशानी भी हुई कि अगर इस बार भी मुझे नपसंद किया गया तो क्‍या होगा ...। लडके वालेां का यह खेल मेरी समझ से परे था। क्‍या मैं एक खिलौना हूं यह सवाल बार बार मेरे जेहन में उठता। आखिर मैं तैयार की गयी। लडके की मां का कहना था कि फोटो पसंद है तो अब शादी हो जानी चाहिए कि लडकी देखना सही नहीं है क्‍येां कि देखने पर नपसंद होने पर उसे छोड देना उसके साथ अन्‍याय होगा। माता पिता से लडके की मां की यह बातें जानकर मेरी उनके प्रति श्रद्धा बढ गयी और सोचती थी कि काश उडकर उनसे मिल आंउं और रोउं जो लडकी का कष्‍ट लडकावाला होकर भी जानती थीं।
पर लडके के चाचा ने दहेज की रकम तय होने के बाद फिर नयी रकम की मांग कर दी और मेरे पिता उतनी रकम देने में असमर्थ थे। और इस तरह लडकी दिखाने की बात रखी रह गयी और शादी टूट गयी। बाद में लडके की शादी ज्‍यादा पैसा मिलने वाली जगह पर तय हुई । आज उस लडके की मां मिलती है तो मुझे बांह में भरकर कहती है काश तू मेरी बहू बनती ...।

Friday, September 5, 2008

आज भी उस रिश्‍तेदार से मुझे घृणा है जिसके चलते मेरी पढाई छूट गयी ...

उस घटना के अब बीस इक्‍कीस साल हो गए पर आज भी जब वह रिश्‍तेदार मिलता है तो मेरे मन में बदले की भावना जाग जाती है। पर कहते हैं कि जस करनी तस भोग विलासा, कि जो दूसरे के साथ गलत करता है उसे उसके किए की सजा मिल जाती है। आज उन्‍हें जो सजा मिली वह देखकर मुझे दुख ही होता है। उनकी चारों संतानेां ने प्रेम विवाह किया। जिसमें उनकी बडी बेटी चंदा जो मेरी दोस्‍त व छोटी बहन थी , ने घर से भाग कर विवाह किया। विवाह के पहले ही वह प्रिगनेंट थी और मजबूरी में उसे शादी करनी पडी। बाद में पता चला कि उस लडके को नशे की आदत थी जिससे वह बराबर बीमार पडता रहा और आगे उसका लीवर खराब हो गया और चंदा के दुखों का अंत नहीं था और शादी के तीसरे साल उसकी मौत हो गयी। उसे लीवर कैंसर हो चुका था।
जबकि मैंने अभी मात्र चीजों को समझना शुरू किया था पर उस बेवकूफ के चलते मेरी पढार्इ छुडा दी गयी जिसका नतीजा मैं जिंदगी भर भोगती रही। आज मुझे वह पत्र लिखना एक अपराध सा लगता है। खैर मैं घर से ही पढती रही। मुझे मैट्रिक में प्रथम श्रेणी आई थी। पर मुझे आगे पढने दिया गया इसके मूल में माता पिता के मन में घुसा वह डर था जो उस पत्र के जाहिर होने के चलते इस रूप में सामने आया था। अब घर में शादी की बात चलने लगी जबकि मैं पढना चाहती थी। तब मैंने सोचा कि क्‍या लडकी को बस काम चलाने भर इसलिए पढाया जाता है कि उसकी शादी की जा सके। पढाई छुडवाने के चलते अब मुझे पढने से चिढ सी हो गयी है। किताब में अक्षर देखते ही मेरे सिर में दर्द होने लगता है। जबकि मेरे पति हमेशा पढने की जिद करते रहते हैं।
अब घर में हमेशा लडके की चर्चा होती थी जिससे मुझे चिढ सी होती थी। ऐसा लगता कि शादी के बाद लडकी को किसी और के घर चूल्‍हा चक्‍की में लगाना कहां का न्‍याय है। मेरे पापा और चाचा अब रोज लडका खोजने जाते और निराश होकर आते तो मेरे भाग्‍य को कोसते और हर जगह मेरी पढाई की बात‍ उठती और कम पढी लिखी होने की बात पर शादी टूट जाती थी। इससे मां बाप परेशान हो जाते और मुझे जली कटी सुनाते थे। पर मेरे वश में कुछ नहीं था। मुझे लगता कि ऐसा क्‍या करूं कि घरवाले खुश रहें और मैं भी खुश रहूं।
जब भी मेरे पापा लडकी देखकर आते तो मुझे लगता कि आज अच्‍छी खबर आएगी हालांकि शादी मैं चाहती नहीं थी कहीं से। पर मां बाप के चेहरे पर खुशी देखने के लिहाज से लगता कि जल्‍दी कोई लडका पसंद कर लेता कि यह तमाशा खत्‍म होता। तब एक दिन मेरे चाचा जी ने एक लडका देखा जो धनबाद का था। शादी की बात पक्‍की हो चुकी थी। लडके वाले की फरमाईशें पूरी हो चुकी थीं। अब लडकी देखने की बात बाकी थी। इसके लिए मेरा पूरा परिवार चाचा जी के यहां चला आया। वहीं मुझे दिखाया जाना था। सारी तैयारी हो चुकी थी। उनके स्‍वागत व विदाई का सारा प्रबंध था। चाचा के घर मैं पहले भी जाती थी। वहीं पडोस में मेरी दोस्‍ती एक सरिता नाम की स्‍त्री से हो गयी थी। वह मुझे बहुत मानती थी। उसी ने मुझे तैयार किया था सजा कर।
जब मैं तैयार होकर मैं बैठी थी और लडके के आने का समय हुआ तो वे आए ही नहीं। इंतजार का समय बीतता गया। मेरे मन में एक अजीब सी सनसनाहट छाई थी पता नहीं अब क्‍या होगा...। क्‍या फिर मेरे पापा उदास हो जाएंगे और टूट जाएंगे। बादमें फोन करने पर पता चला कि वे मुझे देखने नहीं आएंगे। दरअसल इस बीच उनकी मांग बढ गयी थी वे पचास हजार रूपये और एक कलर टीवी और मांग रहे थे, इसी बात पर उन्‍होंने लडकी देखना स्‍थगित कर दिया। मेरी मां जिद पर थी कि किसी तरह पैसा जुटाकर यह शादी करादी जाए पर पापा नही माने। उनका कहना था कि पहले कुछ औरमांगा मंडप में कुछ और मांग कर देंगे और घर जाकर मेरी लडकी के साथ क्‍या होगा यह सोच कर पापा ने मां की बात नहीं मानी क्‍येां कि उनके पास उस समय उतना पैसा नहीं था। इस तरह नेवी में काम करने वालावह लडका भी हाथ से चलागया।

Thursday, September 4, 2008

एक दिन उसने मेरा नाम पूछा ...

रात के आठ बजे हम पढाई के लिए बैठते थे और ग्‍यारह तक पढते थे। पर फिर अगली सुबह हमें अपनी सहेलियों से मिलने का इंतजार रहता था। यह सिलसिला चलता रहा। पढाई डांट हंसी मजाक गप्‍प के साथ दिन बीतते गये। इस दौरान स्‍कूल के रास्‍ते में मेरा ध्‍यान एक लडके ने खींचना शुरू किया। उसका नाम शशि था। वह लंबा गोरा और सुशील सा लडका था। उसकी शक्‍ल जयाप्रदा से मिलती थी। वह रोज मुझे बस में मिलता था। वह जब भी मुझे देखता हंसता और हाथ हिलाता। दो तीन दिन तक वह मेरा पीछा करता रहा।
एक दिन उसने मेरा नाम पूछा और कि कहां पढती हो ...। मैंने बताया कि डीएवी गर्ल्‍स हाई स्‍कूल। फिर उसने मेरी पढाई व घर का पता आदि पूछा। पहले मुझे उसके पूछने से बहुत डर लगा। मैंने पूछा कि आप यह सब क्‍यों पूछ रहे हैं तो उसने कहा कि तुम बहुत अच्‍छी लडकी हो। डर से मैंने उसे घर का पता नहीं बताया कि वह घर पर ना आ धमके। पर वह हमारा पीछा करता रहा और धीरे धीरे वह मुझे अच्‍छा लगने लगा।
तब मैंने अपने दोस्‍तों को सारी कहानी खुशी खुशी बताई। वे खुश हुईं और उन्‍होंने उसका पता बताया कि वह हमारे घरों के निकट रहता है। तब मैं अपने दोस्‍त के घर ज्‍यादा आने जाने लगी। वैसे बस में वह अक्‍सर मिल जाया करता था। धीरे धीरे मैं उसे अपना सबसे अच्‍छा दोस्‍त मानने लगी। अब मैं अपने दोस्‍तों से उसकी कम चर्चा करती थी और मन ही मन उसे गुणती रहती थी।
शशि का हमारे एक रिश्‍तेदार के घर आना जाना था। एक दिन जब मैं उनके घर गयी तो उससे वहां मुलाकात हो गई। वहीं उसकी मां भी थी। मैं भी अपनी मां के साथ थी। मुझे डर सा लगा कि क्‍या किया जाए , उससे कैसे बात करें...। तब मुझे लगा कि रिश्‍तेदार के यहां जाने आने से शायद उससे मुलाकात हो और कुछ बातें हों सकें। पर यह मुमकिन ना हुआ।
अब पढाई लिखाई में मेरा मन नहीं लगता था हर समय उसकी शक्‍ल आंखों के सामने घूमती रहती और उसका हिलता हाथ दिखता रहता। हम अब एक दूसरे को पत्र भी लिखने लगे थे। स्‍कूल में टिफिन के समय का उपयोग हम उसे पत्र लिखने में करते थे और टिफिन भी नहीं खा पाती थी और उसे लिए घर आजाती थी। तो मां पूछती कि टिफिन क्‍यों बचा है तो मैं बताती कि बहुत लिखना पडता है तो समय नहीं मिलता है, यह सुनकर मां बहुत खुश होती।
उस साल मैथ में मुझे बहुत कम नंबर आए। इसी दौरान मेरा एक पत्र शशि की मां के हाथ लगा और वह उसे मेरे रिश्‍तेदार के घर पहुंचा आई। जहां पत्र मेरे घर आ पहुंचा। फिर हमसे पूछ ताछ शुरू हुई। मैथ में मैं फेल हो चुकी थी। तो उस पत्र के मिलने के बाद मेरे पापा ने मेरी बहुत पिटाई की। और उन्‍होंने मेरा स्‍कूल आना जाना छुडवा दिया। अब मैं बहुत रोती परेशान होती। मुझे लगाता कि उसे खोजकर पूछूं कि क्‍या वह मेरा पत्र ठीक से नहीं रख सकता था। पढकर उसे फाड ही देता तो अच्‍छा रहता। पर वह नहीं मिला। इस बीच उसने गाडी चलानी सीख ली थी। एक दिन वह शाम में मेरे घर के सामने से मिनी बस लेकर गुजरा। मैं दरवाजे पर खड़ी थी। उसे देखकर मैं दंग रह गयी। मुझे लगा कि उसे रोककर बात करूं। पर यह असंभव था। जिंदगी चलती रही इसी तरह घिसती पिटती। अब सहेलियां भी छूट चुकीं थीं और पढाई भी।

तब मैं सातवीं में पढती थी ...

जब मैं सातवीं में पढती थी उस वक्‍त मेरी तीन प्‍यारी सहेलियां थीं ललिता,मीना और सुमन । हम में बहुत प्‍यार था। मैं हर सुबह उनके मिलने का इंतजार करती थी। इसके लिए हर सुबह जल्‍दी उठती थी ताकि घर के सारे काम काज को निपटाकर स्‍कूल को तैयार हो सकूं और उनसे गप्‍पें मारती स्‍कूल पहुंच सकूं। हम तीनों सहेलियां एक तरह से सोचती थीं। हम अपना सुख दुख शेयर करती थीं। पढाई हो या परीक्षा हर विषय पर हम मिलकर बातें करती थीं। संस्‍कृत और विज्ञान हमारे प्रिय विषय थे।
क्‍लास में एक मालती मैम थीं जों विज्ञान पढाती थीं। पढाते समय वह अपनी कहानी भी सुनाती थीं कि कैसे कठिनाई से उन्‍होंने पढाई की है। ललिता व मीना पढने में तेज थी पर सुमन क्‍लास में पिछड जाती थी इससे हम तीनों सहेलियां मायूस हो जाती थीं। एक बार जब वह फेल हुई तो हम तीनों ने मिलकर सौ रूपये जमा कराए ताकि उसकी कापी की रिचेकिंग हो सके। इस रिचेकिंग में पास होकर वह फिर हमारे साथ हो गयी। यह बात जब उसने अपने मां-बाप को बताई तो उन्‍होंने हमें अपने घर पर खाने पर बुलाया। चलते समय उन्‍होंने पैसे वापिस करने चाहे तो हमने पैसे नहीं लिये। तब उन्‍होंने पूछा कि आपने पैसे कहां सो लाए। उनका सवाल सही था क्‍यों कि तब हमें स्‍कूल के नाम पर मात्र दस पैसे मिलते थे।
ललिता और मीना ने रक्षाबंधन के पैसे बचाए दिये थे और मैंने जो भी टिफिन के नाम पर पैसा मिलता था और बस की जगह पैदल जा वह पैसा बचाकर रखा था जो दिया था। अब हम फिर इकटठे थे और हमारी पढाई जारी थी।
पढाई के दौरान ललिता को एक लडका पसंद आ गया। हमसब उसी की बात करते थे। टिफिन के बाद हम एकजगह आ जाते थे। टीचर और बाकी छात्र-छात्राएं चिढते थे कि हम एक साथ बैठकर क्‍या बातें करते हैं। वह लडका उसके स्‍कूल के रास्‍ते में रहता था जब वह स्‍कूल जाती तो वह मिलता था। गप्‍पें मारता था। बाद में उसके मां को जब इसका पता चला तो घर में उसकी पिटाई हुई। दूसरे दिन उसकी दुख भरी बातें सुनकर मैं डर जाती थी। ऐसे में घर आकर जब इसके बारे में सोचती तो उदासी सी छा जाती।
घर के रोज की एक ही कहानी थी वही चूल्‍हा जलाना खाना पकाना। पढाई के साथ मैं मां की बहुत मदद करती थी। मेरे पापा डयूटी चले जाते थे तो मुहल्‍ले की सारी औरतें इकटठे बैठकर आपस में बातें करती थीं उसमें मां भी शामिल रहतीं। तब मां भूल जाती कि घर में क्‍या खाना बनेगा, ऐसे में सारा काम मुझे ही करना होता था। शाम में जब मैं रोटियां बनाती तो उस वक्‍त मेरे पास पडोस की छोटी सी लडकी गुडडी पास रहती थी। गुडडी को उसकी मां काम नहीं करने देती थीं कि वह गंदा कर देगी तो वह रोटी बनाना सीखने के लिए मेरे ही पास बैठी रहती थी। उसने रोटियां बनाना मुझसे ही साखा था आज भी मिलने पर वह इसे याद करती है। तब मैं रोटियां सेंकती उससे बातें करती रहती थी और खाना कब बन जाता पता ही नहीं चलता था। जिस दिन रोटी ज्‍यादा बनानी होती थी और गरमी से मैं परेशान हो जाती तो आंटे की कई लोइयां मैं चूल्‍हे के भीतर फेंक देती थी। जिससे रोटी कम बनानी पड़े। उस समय यह नहीं सोचती थी कि सुबह चूल्‍हा मां ही साफ करेगी।
ऐसे में सुबह मेरी खूब पिटाई होती थी। और घर भर के लोगों की डांट सुनती थी।