कभी कभी
ऐसा क्यों लगता है
कि सबकुछ निरर्थक है
कि तमाम घरों में
दुखों के अटूट रिश्ते
पनपते हैं
जहां मकडी भी
अपना जाला नहीं बना पाती
ये संबंध हैं या धोखे की टाट
अपने इर्द गिर्द घेरा बनाए
चेहरों से डर जाती हूं
और होता है
कि किसी समंदर में छलांग लगा दूं।
Tuesday, December 30, 2008
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