Monday, March 23, 2009

रक्‍तस्विनी - कुमार मुकुल

उसके पैरों में घिरनी लगी रहती है
अंतरनिहित बेचैनी में बदहवास
भागती फिरती है वह
इस जहां से उस जहां तक

सितारे
आ आकर मरते रहते हैं
उसके भीतर

जिन सितारों को
अपना रक्‍त पिलाकर पालती है वह

वे दम तोड़ देते हैं एक दिन
उसकी ही बाहों में
अपनी चमक उसे सौंपते हुए

यह चमक
कतरती रहती है
उसका अंतरतम

सितारों की अतृप्‍त अकांक्षाएं
हर पल उसे बेचैन रखती हैं
वह सोचती है कि
अब किसी सितारे को
मरने नहीं देगी अपनी पनाह में
और रक्‍तस्विनी बन हरपल
उनके लिए प्रस्‍तुत
भागती रहती है वह
इस जहां से उस जहां तक ...

मेरी अपनी तो कोई कहानी नहीं - कुमार मुकुल

आभा तो
पागल है ना मिनी

दर्जनों कैंसरग्रस्‍त बच्‍चों की कब्रें
अपने भीतर सहेजे
कोई
कैसे सामान्‍य रह सकता है मेरी बच्‍ची


उसके सोते ही
जग जाते हैं सारे बच्‍चे
और
मग्‍न हो जाती है वह
उनके साथ

एक बच्‍ची मरते-मरते बोलती है-
मेरी कहानी लिखिएगा ना आभा आंटी
- हां हां
मेरी मुनिया
और क्‍या
मेरी अपनी तो कोई कहानी नहीं

मेरी आंखों का नूर - आभा

लोग कहते हैं
कि बेटे को जिंदगी दे दी मैंने
पर उसके कई संगी नहीं रहे
जिनकी बड़ी बड़ी आंखें
आज भी घूरती कहती हैं
-
आंटी , मैं भी कहानी लिखूंगी
अपनी
उसकी आवाज आज भी
गूंजती है कानों में

बच्‍ची
कैसी आवाज लगाई तूने
जो आज भी गूंज रही है फिजां में
ओह
व्‍हील चेयर पर
दर्द से तड़पती आंखें वे

वह दर्द
आज मेरी आंखों का नूर बन
चमक रहा है