Friday, October 3, 2008
कविताएं - आभा
घृणा से
टूटे हुए लोगों
दर्पण और अनास्था से
असंतुष्ट महिलाओं को
वक्तव्य न दो।
मोहित करती है वह तस्वीर
जो बसी है रग रग में
डरती हूं
कि छू कर उसे मैली ना कर दूं
हरे पत्तों से घिरे गुलाब की तरह
खूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्मीद नहीं
कि तुम्हें देख सकूं
इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूं।
बचपन में परायी कहा
फिर सुहागन
अब विधवा
ओह किसी ने पुकारा नहीं नाम लेकर
मेरे जन्म पर खूब रोयी मां
मैं नवजात
नहीं समझ पायी उन आंसुओं का अर्थ
क्या वाकई मां
पुत्र की चाहत में रोई थी।
मेरी तकदीर पर वाहवाही लूटते हैं लोग
पर अपने घ्रर में ही
घूमती परछाई बनती जा रही मैं
मैं ढूंढ रही पुरानी खुशी
पर मिलती हैं तोडती लहरें
खुद से सुगंध भी आती हैं एक
पर उस फूल का नाम
भ्रम ही रहा मेरे लिए।
शादी का लाल जोडा पहनाया था मां ने
उसकी रंगत ठीक ही थी
पर उसमें टंके सितारे उसकी रंगत
ढंक रहे थे
मुझे दिखी नहीं वहां मेरी खुशियां
मुझ पर पहाड सा टूट पडा एक शब्द
शादी
बागों में सारे फूल खिल उठे
पर मेरी चुनरी की लाली फीकी पडती गयी
बक्से में बंद बंद।
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6 comments:
आभा जी बहुत सुन्दर कविता है आपकी । बहुत अच्छा लिखती है आप । बधाई आपको।
मेरी तकदीर पर वाहवाही लूटते हैं लोग
पर अपने घ्रर में ही
घूमती परछाई बनती जा रही मैं
मैं ढूंढ रही पुरानी खुशी
abha ji we are also working as an ngo for mentally retired woman , who is been thrown out of thier relatives
great cause u r working for
regards
Bahut gahan vichar shrinkhala se yukt kavyabhivyakti hai. http://atmhanta.blogspot.com
बहुत बढ़िया!!!
bahut prakhar abhivyakti.
bahut achchhi rachna hai aapki .bahut sundar ati-sundar mai भी आपके ब्लॉग में सामिल होना चाहता हूँ
मुझे ब्लॉग के बारे में बहुत कम जानकारी है.
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