मैं तुमसे लड़ता हूँ
तुम्हे आहत करता हूँ
तुम्हे निहत्थे मार सकता हूँ
क्योंकि मैं तुमसे घृणा करता हूँ
किंतु मेरे अंतर्मन में
तुम बन्धु हो
मेरी लेखनी डूबी है विष में
किंतु यह विष वह नहीं
जो मेरी शिराओं में बहता है ।
Saturday, October 4, 2008
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2 comments:
बहुत उम्दा रचना पढ़वाने के लिए एवं प्रस्तुत करने का आभार.
achha likha hai abha ji
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