वह नादान औरत
जो कठघरे रूपी घर में
एक खिलौना बनकर जीती है
जाने कितने बलात्कार झेल
इस घर में वह कठपुतली सी रहती है
एक अदृश्य डोर से बंधी
नचायी जाती है
वही नादान औरत
सुहागन बने रहने के लिए
रखती है निर्जला व्रत
और पति से पिट पिट कर भी
उसे प्यार करती है
बारंबार ठुकरायी जाकर भी
बालकनी में , सीिढयों पर खडी होकर
करती है उसका इंतजार।
क्या यही इंतजार प्यार है...
Friday, November 7, 2008
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2 comments:
आभा जी,
आपकी रचना में औरत होने का दर्द झलकता है और साथ ही साथ औरत की औरत बने रहने की वेदना की झलक भी मिलती है.
विशेषतः औरत का बॉलकनी, सीढीयों पे खड़े होकर इंतजार करना / सुहागन बने रहने के लिये निर्जला व्रत करना सी पंक्तियों ने छू लिया.
बधाईयाँ
मुकेश कुमार तिवारी
http://tiwarimukesh.blogspot.com
बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप। जारी रखें।
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