Thursday, September 4, 2008

तब मैं सातवीं में पढती थी ...

जब मैं सातवीं में पढती थी उस वक्‍त मेरी तीन प्‍यारी सहेलियां थीं ललिता,मीना और सुमन । हम में बहुत प्‍यार था। मैं हर सुबह उनके मिलने का इंतजार करती थी। इसके लिए हर सुबह जल्‍दी उठती थी ताकि घर के सारे काम काज को निपटाकर स्‍कूल को तैयार हो सकूं और उनसे गप्‍पें मारती स्‍कूल पहुंच सकूं। हम तीनों सहेलियां एक तरह से सोचती थीं। हम अपना सुख दुख शेयर करती थीं। पढाई हो या परीक्षा हर विषय पर हम मिलकर बातें करती थीं। संस्‍कृत और विज्ञान हमारे प्रिय विषय थे।
क्‍लास में एक मालती मैम थीं जों विज्ञान पढाती थीं। पढाते समय वह अपनी कहानी भी सुनाती थीं कि कैसे कठिनाई से उन्‍होंने पढाई की है। ललिता व मीना पढने में तेज थी पर सुमन क्‍लास में पिछड जाती थी इससे हम तीनों सहेलियां मायूस हो जाती थीं। एक बार जब वह फेल हुई तो हम तीनों ने मिलकर सौ रूपये जमा कराए ताकि उसकी कापी की रिचेकिंग हो सके। इस रिचेकिंग में पास होकर वह फिर हमारे साथ हो गयी। यह बात जब उसने अपने मां-बाप को बताई तो उन्‍होंने हमें अपने घर पर खाने पर बुलाया। चलते समय उन्‍होंने पैसे वापिस करने चाहे तो हमने पैसे नहीं लिये। तब उन्‍होंने पूछा कि आपने पैसे कहां सो लाए। उनका सवाल सही था क्‍यों कि तब हमें स्‍कूल के नाम पर मात्र दस पैसे मिलते थे।
ललिता और मीना ने रक्षाबंधन के पैसे बचाए दिये थे और मैंने जो भी टिफिन के नाम पर पैसा मिलता था और बस की जगह पैदल जा वह पैसा बचाकर रखा था जो दिया था। अब हम फिर इकटठे थे और हमारी पढाई जारी थी।
पढाई के दौरान ललिता को एक लडका पसंद आ गया। हमसब उसी की बात करते थे। टिफिन के बाद हम एकजगह आ जाते थे। टीचर और बाकी छात्र-छात्राएं चिढते थे कि हम एक साथ बैठकर क्‍या बातें करते हैं। वह लडका उसके स्‍कूल के रास्‍ते में रहता था जब वह स्‍कूल जाती तो वह मिलता था। गप्‍पें मारता था। बाद में उसके मां को जब इसका पता चला तो घर में उसकी पिटाई हुई। दूसरे दिन उसकी दुख भरी बातें सुनकर मैं डर जाती थी। ऐसे में घर आकर जब इसके बारे में सोचती तो उदासी सी छा जाती।
घर के रोज की एक ही कहानी थी वही चूल्‍हा जलाना खाना पकाना। पढाई के साथ मैं मां की बहुत मदद करती थी। मेरे पापा डयूटी चले जाते थे तो मुहल्‍ले की सारी औरतें इकटठे बैठकर आपस में बातें करती थीं उसमें मां भी शामिल रहतीं। तब मां भूल जाती कि घर में क्‍या खाना बनेगा, ऐसे में सारा काम मुझे ही करना होता था। शाम में जब मैं रोटियां बनाती तो उस वक्‍त मेरे पास पडोस की छोटी सी लडकी गुडडी पास रहती थी। गुडडी को उसकी मां काम नहीं करने देती थीं कि वह गंदा कर देगी तो वह रोटी बनाना सीखने के लिए मेरे ही पास बैठी रहती थी। उसने रोटियां बनाना मुझसे ही साखा था आज भी मिलने पर वह इसे याद करती है। तब मैं रोटियां सेंकती उससे बातें करती रहती थी और खाना कब बन जाता पता ही नहीं चलता था। जिस दिन रोटी ज्‍यादा बनानी होती थी और गरमी से मैं परेशान हो जाती तो आंटे की कई लोइयां मैं चूल्‍हे के भीतर फेंक देती थी। जिससे रोटी कम बनानी पड़े। उस समय यह नहीं सोचती थी कि सुबह चूल्‍हा मां ही साफ करेगी।
ऐसे में सुबह मेरी खूब पिटाई होती थी। और घर भर के लोगों की डांट सुनती थी।

4 comments:

Anita kumar said...

:) रोचक लग रहा है आप को पढ़ना , फ़िर आगे क्या हुआ

श्यामल सुमन said...

शशिप्रिया जी,

प्रवाह और प्रयास ठीक है किंतु मुझे संदेश स्पष्ट नहीं हुआ. फिर भी कोशिश जारी रखें.

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Anonymous said...

bahut kam log hote hai jo sachchai k sath apni bat kahte hai. aapki kahani {hakikat}me sachchai jhalkati hai,aasha hai aapko aise hi age bhi pad sakoonga.
"VISH"

प्रदीप मानोरिया said...

बधाई स्वागत निरंतरता की चाहत
समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर भी पधारें