घर घर
खेलती हैं लडकियां
पतियों की सलामती के लिए
रखती हैं व्रत
दीवारों पर
रचती हैं साझी
और एक दिन
साझी की तरह लडकियां भी
सिरा दी जाती हैं
नदियों में
आखिर
लडकियां
कब सोचना शुरू करेंगी
अपने बारे में ...
Wednesday, May 20, 2009
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5 comments:
आभा जी,
वाकई आप तो बहुत ही साहसी हैं। अपने बेटे के ब्लड कैंसर को प्रेरणास्रोत बनाकर दूसरे बच्चों की सेवा करना भी सचमूच एक मिशाल है। आपको इस बात की बधाई कि आपको ऐसा पति मिला जो जिंदगी में इतना आगे बढने में हर तरह से आपकी मदद की, और आप संतुष्ट हैं। आपकी कविता बेहतर लगी। शुभकामना स्वीकार करें।
aap ne sahii likha haen yae dard kitna gehra haen isko samjhnae kae liyae gehri samvaednaaye honi chaiyae par samaaj mae nahin haen
mere khayal se shuru kar dena chahiye...nahi to yahan tak pahunchne mein sadiyan beet gayi
ab aur der nahi
आखिर
लडकियां
कब सोचना शुरू करेंगी
अपने बारे में ...
बहुत खूब
दीवारों पर
रचती हैं साझी
और एक दिन
साझी की तरह लडकियां भी
सिरा दी जाती हैं
नदियों में
बहुत सुन्दर- आपने कविता के माध्यम से अच्छी अभिव्यक्ती पेश कि-
मुम्बई टाईगर एवम हे प्रभु यह तेरापन्थ का नमस्कार॥।
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